राजेन्द्र यादव एक व्यक्ति से अधिक एक विचार थे. हिंदी समाज में उनकी उपस्थिति वाल्टेयर सरीखी थी. वे अपनी अभिव्यक्ति में बेलाग और निडर थे. जिन मुद्दों पर अधिकांश लोग चुनी हुई चुप्पियों में समाधिस्थ हो जाते थे, उन्हें वे डंके की चोट पर अभिव्यक्त करते थे. तो आइये उनकी स्मृति में नमन करते हुए आज उनके जन्मदिन (28 अगस्त) पर उनकी कुछ अभिव्यक्तियों से गुजरें.
आज से बीस वर्ष पूर्व राजेन्द्र यादव ने जो लिखा था:
“यह एक अनिवार्य वास्तविकता है कि मुस्लिम समुदाय के बिना न हमारा सांस्कृतिक जीवन चल सकता है, न राष्ट्रीय. वे अपरिहार्य हैं और पन्द्रह करोड़ हैं. न हम उन्हें समाप्त कर सकते हैं न पाकिस्तान भेज सकते हैं.
वे दुनिया की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी हैं. उनमें से अस्सी नब्बे प्रतिशत तो वे हैं, जो कल तक हिन्दू थे और हमारे ही अत्याचारों ने उन्हें मुसलमान और ईसाई बनाया.
‘अगर उन्हें यहाँ रहना है तो वे सिर्फ हमारी ही शर्तों और कृपा पर रहें ‘ की हिंदुत्ववादी जिद उन्हें अलगाववादी और अंततः आतंकवादी ही बनाएगी. उनकी सारी राष्ट्र विरोधी मानसिकता और गतिविधियों के एकमात्र जिम्मेदार हम बहुसंख्यक हैं.
अगर सच्चाई से मुंह न चुराया जाए तो मैं कहूंगा कि अल्पसंख्यकों, दलितों, स्त्रियों और आदिवासियों की उभरती शक्तियों और सामाजिक भागीदारी ही राष्ट्र को नई तरह गढ़ेगी.
असमानता, अलगाववाद, अन्याय और अतीतजीवी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद खुद हाशियों पर धकेल दिए जाने के लिए अभिशप्त है क्योंकि आज वह गरीबी बेरोजगारी और अशिक्षा से ही अपनी असली खुराक पा रहा है.
#वीरेन्द्र यादव की वाल से साभार
राजनीतिक संरक्षण और सत्ता के अहंकार में चूर हिंदुत्व दूसरों को ही राष्ट्रविरोधी और अपराधी नहीं बना रहा, खुद अपने आपको भी लुम्पिन, घूसखोर हत्यारों में बदल रहा है. मैं अपने आपको किसी हिन्दू से कम नहीं समझता, मगर हिंदुत्व का यह खौफनाक चेहरा देखकर भीतर तक दहल जाता हूँ.”
यह भी महसूस करता हूँ कि सवर्ण-वर्चस्व के बीच शीर्ष पर आने के लिए पिछड़ों दलितों, मुसलमानों और स्त्रियों को दुगुनी चौगुनी प्रतिभा और मेहनत झोंकनी पड़ती है तब जाकर न्यायकर्ताओं के मुंह से फूटता है कि ‘यह सब होने के बावजूद अमुकजी ने प्रथम श्रेणी का काम किया है.’ कितना अपमानजनक है यह ‘बावजूद’! ” –राजेन्द्र यादव, ‘हंस’, सितम्बर 2002