✍🏻 प्रहरी संपादकीय डेस्क | 12 जून 2025
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 11 वर्षों के कार्यकाल में भारत ने वैश्विक मंच पर खुद को एक मजबूत आर्थिक ताकत के रूप में स्थापित किया है। सरकार का दावा है कि भारत अब दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। 5 ट्रिलियन डॉलर की जीडीपी, विश्व की सबसे बड़ी डिजिटल पेमेंट प्रणाली, और वैश्विक निवेशकों का भरोसा — यह सब भारत की आर्थिक तस्वीर का एक पक्ष है।
लेकिन, इस तस्वीर का एक दूसरा, कम चमकदार और कहीं अधिक तकलीफदेह पक्ष भी है — देश में आज भी 1 करोड़ से ज्यादा बच्चे बाल मजदूरी में लगे हुए हैं। ये वही भारत है जहां लगभग 80 करोड़ लोग अब भी 5 किलो मुफ्त राशन पर निर्भर हैं, और करोड़ों युवा 15,000 रुपये से कम मासिक वेतन पर जिंदगी काट रहे हैं।
एक करोड़ बचपन, जो कलम की जगह कुदाल थामे हुए हैं
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) और यूनिसेफ की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में हर 10 में से 1 बच्चा मजदूरी करता है। इनमें से लाखों बच्चे भारत में हैं, जो खेतों, ईंट भट्टों, चाय की दुकानों, या खतरनाक फैक्ट्रियों में अपना बचपन गंवा रहे हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्य इस संकट के केंद्र में हैं, जहां देश के 55% बाल मजदूर पाए जाते हैं। अकेले उत्तर प्रदेश में ही यह संख्या 21 लाख से अधिक है।
कानून तो हैं, लेकिन बदलाव कहां है?
भारत में बाल मजदूरी पर रोक के लिए कई कानून बने हैं — बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम 1986, बंधुआ श्रम अधिनियम 1976, किशोर न्याय अधिनियम 2000। इनमें 14 साल से कम उम्र के बच्चों से मजदूरी करवाना अपराध है, जिसमें 6 महीने की जेल या ₹50,000 तक का जुर्माना हो सकता है। लेकिन आंकड़े चीख-चीख कर बता रहे हैं कि कानून कागज़ों में ज्यादा, ज़मीन पर कम हैं।
विकास के असमान मापदंड
जब सरकारें वैश्विक मंचों पर अमीरी के आंकड़े गिनवाती हैं, तब यह पूछना जरूरी हो जाता है — क्या विकास का पैमाना सिर्फ कॉर्पोरेट लाभ और विदेशी निवेश है, या उसमें बच्चों का बचपन भी शामिल है? यदि भारत दुनिया के सबसे अमीर लोगों का घर है, तो उसी देश में एक करोड़ बच्चे बाल मजदूरी क्यों कर रहे हैं? और क्यों करोड़ों लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीने को मजबूर हैं?
सवाल सिर्फ नीति का नहीं, नियत का भी है
यह देश तब तक सच्चे अर्थों में विकसित नहीं कहलाया जा सकता जब तक उसके बच्चे स्कूल में हों, चाय की दुकानों पर नहीं। जब तक हर युवा को सम्मानजनक वेतन और हर नागरिक को गरिमामय जीवन नहीं मिलता। अर्थव्यवस्था की मजबूती से पहले समाज की नींव को मज़बूत करना होगा — और वह नींव है बच्चों का बचपन।
सरकार की घोषणाएं, बजट और विकास योजनाएं तभी सार्थक होंगी, जब उसका लाभ आखिरी पंक्ति में खड़े उस बच्चे तक पहुंचेगा, जो आज भी एक वयस्क की तरह श्रम कर रहा है।