यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में बढ़ रही स्थानीय लोगों की नफरत
✍🏻 प्रहरी संवाददाता, नई दिल्ली | विदेशों में “भारत माता की जय” के नारे लगाने वाले प्रवासी भारतीय आज सबसे ज्यादा असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। इन्हीं प्रवासी भारतीयों ने मोदी सरकार को ग्लोबल चेहरा दिया, हर चुनाव में समर्थन और फंडिंग के जरिए बीजेपी की विदेशों में छवि गढ़ी, वही आज ऑस्ट्रेलिया, यूरोप और अमेरिका की सड़कों पर अपमान और हिंसा झेल रहे हैं और सरकार मौन कूटनीति के पीछे चेहरा छिपाए बैठी है।
अमेरिका के बाद अब यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में भी भारतीय प्रवासियों के खिलाफ विरोध और हिंसा के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। हाल के महीनों में लंदन, मेलबर्न और डसेलडॉर्फ जैसे शहरों में भारतीय छात्रों और कामगारों को नस्लीय टिप्पणियों, घृणास्पद पोस्टरों और सोशल मीडिया अभियानों का सामना करना पड़ा है। सवाल उठ रहा है कि विश्वगुरु बनने के दावों के बीच भारत की विदेश नीति अपने ही नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में क्यों नाकाम साबित हो रही है।
विशेषज्ञों का मानना है कि इस विरोध के पीछे दो बड़े कारण हैं, माइग्रेशन संकट और उदारवाद बनाम राष्ट्रवाद की वैश्विक बहस। पश्चिमी देशों में सस्ते श्रम और टेक सेक्टर में भारतीयों की बढ़ती हिस्सेदारी स्थानीय युवाओं के हित और रोजगार संकट से टकरा रही है। वहीं, दक्षिणपंथी राजनीतिक ताकतें “राष्ट्रीय पहचान” के मुद्दे पर विदेशी कामगारों को बलि का बकरा बना रही हैं।
विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि यह स्थिति भारत की विफल विदेश नीति का परिणाम है, जो केवल फोटोशूट और मेगा इवेंट तक सिमटी रही। मोदी सरकार ने प्रवासियों को मंच सजावट और भीड़ जुटाने का प्रतीक बना दिया, लेकिन उनकी सुरक्षा और सम्मान के लिए कोई ठोस नीति नहीं बनाई। विदेश मंत्रालय के बयान अब महज़ डिप्लोमैटिक स्क्रिप्ट बनकर रह गए हैं, जिनमें न संवेदना है, न संकल्प।
भारत की विदेश नीति अगर केवल “इवेंट कूटनीति” तक सीमित रही, तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का सपना उन भारतीयों के लिए खोखला साबित होगा, जो रोज़ विदेशों में अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रहे हैं। सवाल यह भी गूंजता है कि क्या “अमृतकाल” में भारतीय पासपोर्ट सिर्फ एक पहचान है, या एक बोझ बन गया है?