✍🏻 प्रहरी संवाददाता, नई दिल्ली। वर्ल्ड बैंक की हालिया रिपोर्ट ने भारत में गरीबी की नई तस्वीर पेश की है, जिसने केंद्र सरकार के विकास के दावों पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। ‘अत्यंत गरीबी’ की नई परिभाषा के आधार पर प्रकाशित इस रिपोर्ट में भारत की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को लेकर जो आंकड़े सामने आए हैं, वे चौंकाने वाले हैं।
सरकारी स्रोतों के अनुसार, वर्ष 2022-23 में भारत में करीब 34.2 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन बिता रहे थे, जो कि देश की कुल जनसंख्या का लगभग 24% है। लेकिन स्वतंत्र संस्था सीएमआईई (सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी) के ताज़ा विश्लेषण के मुताबिक वर्ष 2024 तक यह संख्या 62.1 करोड़ तक पहुंच चुकी है यानी भारत की 44% आबादी गरीबी रेखा से नीचे मानी जा रही है।
विशेषज्ञों का कहना है कि यह बदलाव न केवल आर्थिक असमानता को दर्शाता है, बल्कि यह भी संकेत देता है कि व्यापक स्तर पर विकास का लाभ आम नागरिकों तक नहीं पहुंच पा रहा है।
राशन कार्ड बनाम प्रचार रणनीति
मोदी सरकार द्वारा संचालित ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना’ के तहत इस समय देश में 80 करोड़ से अधिक लोगों को मुफ्त राशन मुहैया कराया जा रहा है। सरकार इसे सामाजिक कल्याण की उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है, मगर कुछ आर्थिक विश्लेषकों का मानना है कि इतने बड़े पैमाने पर राशन वितरण स्वयं इस बात का संकेत है कि बड़ी आबादी अभी भी न्यूनतम भोजन तक के लिए सरकारी सहायता पर निर्भर है।
बेरोजगारी और महंगाई बनी दोहरी चुनौती
सीएमआईई और अन्य आर्थिक संस्थाओं के अनुसार, बीते वर्षों में बेरोजगारी दर में स्थायी बढ़ोतरी देखी गई है। इसके साथ ही आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में भी निरंतर वृद्धि हो रही है। यह दोहरा दबाव मध्यम और निम्नवर्गीय परिवारों को आर्थिक रूप से और अधिक असुरक्षित बना रहा है।
राजनीतिक विमर्श में मूल मुद्दे गुम
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जब भी अर्थव्यवस्था और रोजगार जैसे सवालों पर बहस तेज होती है, तब धार्मिक और सांप्रदायिक मुद्दों को राजनीतिक विमर्श में आगे लाया जाता है। इससे ध्यान बंटता है और गरीबी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे वास्तविक मुद्दे हाशिए पर चले जाते हैं।
एक सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा, ‘गरीबी धर्म या जाति देखकर नहीं आती , इसका असर हर समुदाय पर पड़ता है। जब तक असली मुद्दों को प्राथमिकता नहीं दी जाएगी, तब तक विकास का लाभ सीमित तबकों तक ही रहेगा।’