नफरत की राजनीति और औरंगज़ेब का 318 साल का भूत
नागपुर का महल इलाका, यानी आरएसएस का गढ़, हेडगेवार का घर और हिंदुत्व की प्रयोगशाला।
सोमवार की रात यहां दंगे भड़क उठे। औरंगज़ेब, जो 3 मार्च 1707 को मर चुका था, वो 300 साल से भी ज्यादा समय तक भूत बना बैठा है, आज 2025 में भी हिंदुस्तान का वो शासक महाराष्ट्र की सड़कों पर जिंदा घूम रहा है। क्योंकि नफरत का 318 साल पुराना इतिहास महाराष्ट्र की मिट्टी में ही दफन है।
विपक्ष में बैठी पार्टियां यह आरोप लगाती हैं कि आरएसएस इस इतिहास से कोई सबक नहीं लेना चाहता, बल्कि इसे दोहराना चाहता है। इसे मालूम है कि कर्ज़ में डूबी महाराष्ट्र सरकार को बचाने के लिए दंगे ज़रूरी हैं।
सत्ता का हिट फॉर्मूला: दंगा, ध्यान भटकाओ, राज करो
क्या मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने अपने ही शहर को जलाया है? और फिर,
फिर टीवी पर आकर शांति की अपील की, ठीक उसी तरह,
जिस तरह 2002 के कत्लेआम के बाद मोदी ने लाशों पर घड़ियाली आंसू बहाए थे।
गुजरात दंगों के दौरान मोदी ने कहा था—
“भीड़ को अपना गुस्सा उतारने दो।”
लेकिन, किस पर?
मुस्लिम औरतों पर।
उनकी कोख चीरकर भ्रूण को त्रिशूल पर टांगकर।
सामूहिक बलात्कार कर।
क्या अब महाराष्ट्र में भी यही फॉर्मूला आज़माया जा रहा है।
असल मुद्दे क्या हैं?
महाराष्ट्र पानी के लिए तरस रहा है।
महिला अत्याचार बड़े पैमाने पर हो रहे हैं।
किसान कर्ज़ में डूबकर आत्महत्या कर रहे हैं।
कानून-व्यवस्था ध्वस्त है।
बेरोज़गारी चरम पर है।
लेकिन, बहस क्या हो रही है?
औरंगज़ेब, बाबर, टीपू सुल्तान और हिंदू-मुस्लिम।
सरकार जानती है कि अगर लोग असली मुद्दों पर सवाल करने लगे, तो सत्ता डगमगा जाएगी।
इसलिए नफरत का तमाशा ज़रूरी है।
इतिहास का इस्तेमाल, भड़काऊ भविष्य
आरएसएस को स्थापित हुए 100 साल हो गए और औरंगज़ेब को मरे हुए 318 साल।
इतिहास में दुनिया ने कितनी तरक्की कर ली, लेकिन भारत में नफरत का इतिहास ही भविष्य का नक्शा बन चुका है।
अब इस नफरत के मां-बाप हिंदू हैं।
जाहिल, धर्मांध, कुटिल।
आपस में बिखरे, लेकिन दंगों में एकजुट।
घर में आटा नहीं, लेकिन जेब में डेटा है।
बीजेपी आईटी सेल से दंगों की दिहाड़ी लेकर घूम रहे हैं।
हम कौन-सा देश बना रहे हैं?
कभी वैज्ञानिक सोच वाला भारत था, अब WhatsApp यूनिवर्सिटी का गुलाम है।
कभी लोकतंत्र की मिसाल था, अब दंगों की प्रयोगशाला बन चुका है।
कभी विश्वगुरु बनने का सपना देखता था, अब इतिहास के भूत से निकलने को तैयार नहीं।
हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र थे।
अब नफरत के कारोबार का सबसे बड़ा बाज़ार हैं।
इससे देश बचेगा नहीं, जलेगा।
और जो लोग आग लगाने निकले हैं, वे भी इसी में जलेंगे।
अब सवाल बस इतना है—
हम इस नफरत को कब तक ईंधन देते रहेंगे?