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संवैधानिक जनतंत्र पर फासीवाद के खतरे को लेकर कोई विचारोत्तेजक बहस क्यों नहीं है?

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“स्वाधीनता पूर्व के वर्षों में वर्ण और वर्ग से मुक्त लेखन की प्रेमचंद की जिस परम्परा का सूत्रपात हुआ था, पिछले कुछ दशकों के हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में उसका कमोबेश क्षरण ही हुआ.

हिंदी साहित्य की इस कुलीन वृत्ति की काफी कुछ भरपाई पिछले कुछ दशकों में दलित साहित्य की सशक्त उपस्थिति द्वारा दर्ज हुई. लेकिन मुख्यधारा की इस वैचारिक जड़ता को अपने धारदार तर्कों द्वारा जिस तरह राजेन्द्र यादव ने तोड़ा था, वह ठहर सी गई है.

यह सचमुच विचारणीय है कि हिंदी के सार्वजनिक वृत्त (पब्लिक स्पेयर) में संवैधानिक जनतंत्र पर फासीवाद के खतरे को लेकर कोई विचारोत्तेजक बहस क्यों नहीं है? .. इधर पिछले वर्षों कुछ मुद्दों को लेकर जो भी विवाद हुए, वे व्यक्तिगत आचरण और तात्कालिक उत्तेजना के अधिक रहे, वैचारिक व दीर्घकालीन महत्व के कम.

2016 की अवार्ड वापसी की मुहिम को हिंदुत्ववादी शक्तियों के विरुद्ध जिस तार्किक परिणतियों तक पहुंचना था, वह भी नहीं हो पाया.

भीमा कोरेगांव प्रकरण को जिस तरह दलित, आदिवासी समर्थक बौद्धिकों व सामाजिक कार्यकर्ताओं की घेराबंदी का बहाना बनाया गया, उसका भी प्रभावी प्रतिरोध न हो  सका.

यह सवाल उठना लाजिमी है कि सांप्रदायिकता विरोध के लिए यदि ‘6 दिसम्बर ‘और ’16 मई के बाद कविता’ सरीखे प्रतिरोध आयोजित किए जा सकते हैं, तो भीमा कोरेगांव, ऊना, सहारनपुर, हाथरस आदि सरीखी जघन्य घटनाओं पर दलितों व आदिवासियों के समर्थन में ‘भीमाकोरेगांव के बाद साहित्य’ सरीखी मुहिम क्यों नहीं की जा सकती?

तो क्या यही सच है कि हिंदी साहित्य के सार्वजनिक वृत्त में सांप्रदायिकता विरोध को लेकर जो सर्वसहमति का भाव रहा है ,वह दलित व हाशिये के समाज मुद्दों को लेकर  नहीं रहा है.?

संभवतः इसके मूल में वह वर्चस्ववादी सवर्ण अवचेतन है जो ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘साम्प्रदायिक सद्भाव’  को लेकर तो सहज रहता है लेकिन उसे दलित मुद्दों का इलाका जोखिमभरा लगता है क्योंकि यहाँ ‘सीस उतारै’ की तर्ज पर डिकास्ट होना पड़ता है.

हिंदी साहित्यिकों और बौद्धिकों की सबसे बड़ी दुविधा यह है कि वे ‘पोलिटिकल’ हिंदुत्व से तो लड़ना चाहते हैं, लेकिन वर्णाश्रमी जातिवाद को प्रश्नांकित किए बिना. वे निचले पाएदान की  मेहनतकश जाति  समूहों की प्रतिरोधी एकता को तो  अस्मितावाद के नाम पर खारिज करते हैं लेकिन सवर्ण उभार के पलटवार और दमनकारी एकजुटता को ‘नए  राष्ट्रवाद में समाहित कर लेते हैं.
एक द्रष्टा लेखक  होने के कारण प्रेमचंद को यह पूर्वाभास था कि ‘हिंदू खतरे में ‘ का विचार ‘स्वराज्य’ की मुहिम के लिए ‘फातिहा’ सिद्ध होगा, क्योंकि इस विचार के मूल में वर्णाश्रमी सोपान पर टिकी हिन्दू श्रैष्ठता  ग्रंथि थी, जिसके निशाने पर स्त्री, दलित व अल्पसंख्यक सभी थे. कहने की आवश्यकता नहीं कि वर्तमान संदर्भों में ‘हिन्दू खतरे में’ की मुहिम देश के  संवैधानिक जनतंत्र के समाधि-लेख के मानिंद है.

‘स्वराज’ की मुहिम को बचाने के लिए प्रेमचंद ने अपने हस्तक्षेपकारी लेखन द्वारा ‘वन पर्सन आर्मी’ सरीखी भूमिका का निर्वहन किया था. क्या आज के चुनौती भरे समय में हिंदी लेखक समुदाय स्वयं को प्रेमचंद की परंपरा का सच्चा उत्तराधिकारी सिद्ध करने में समर्थ हो सकेगा???.”

(‘हंस’ ,अगस्त 2022, के अंक में प्रकाशित  ‘साहित्य की चुनौती–स्वराज्य से स्वाधीनता तक’ शीर्षक अपने ही लेख से)


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