पहलगाम हमला: नाकामी का नंगा नाच
पहलगाम, कश्मीर का वह खूबसूरत पर्यटन स्थल, जो अब खून से लथपथ खबरों का केंद्र बन चुका है। आतंकी हमले में निर्दोष लोग मारे गए, और एक बार फिर सवाल उठा—हमारी इंटेलिजेंस और सुरक्षा व्यवस्था कहां थी? क्या सरकार आतंकवाद से निपटने में नाकाम रही? क्या बार-बार होने वाले ऐसे हमले यह नहीं दिखाते कि हमारी रणनीति में कोई बड़ा छेद है? ये सवाल हर नागरिक के मन में हैं, लेकिन जवाब के नाम पर सिर्फ खामोशी और बहाने मिलते हैं।
जाति जनगणना: अचानक क्यों याद आई?
ऐसे में, अचानक *जाति जनगणना* का मुद्दा छेड़ना कोई साधारण बात नहीं। यह ऐसा मुद्दा है, जो भावनाओं को भड़काने, समाज को बांटने और सियासी रोटियां सेंकने में माहिर है। सरकार और विपक्ष, दोनों ही इसे अपने-अपने तरीके से भुनाने में जुट गए हैं। लेकिन, सवाल यह है कि जब देश आतंकवाद जैसे गंभीर खतरे से जूझ रहा है, तब जाति गिनने की जल्दबाजी क्यों? क्या यह इसलिए ताकि पहलगाम जैसे हमलों पर सवाल उठाने वाली जनता का ध्यान बंट जाए?
इंटेलिजेंस की लाचारी, सियासत की चतुराई
पहलगाम हमले से पहले इंटेलिजेंस को भनक तक नहीं? यह कोई पहली बार नहीं। 2023 में अनंतनाग और 2024 में बारामूला के हमलों में भी यही कहानी थी। हर बार वही ढाक के तीन पात: “हम आतंकवाद को बर्दाश्त नहीं करेंगे!” लेकिन हकीकत? आतंकी हमले बेरोकटोक, और सरकार की प्राथमिकता? जाति जनगणना को हवा देना। यह ऐसा है जैसे डॉक्टर मरीज को बचाने की बजाय उसकी राशि गिनने बैठ जाए। सियासत की यह चतुराई जनता को मूर्ख बनाने की कोशिश है, लेकिन अब जनता जाग रही है।
इंटेलिजेंस की नाकामी या सियासत की चाल?
पहलगाम हमले ने एक बार फिर बता दिया कि हमारी इंटेलिजेंस व्यवस्था में सुधार की सख्त जरूरत है। आतंकी हमले की पहले से कोई ठोस जानकारी न होना, सुरक्षा बलों की तैनाती में चूक, और हमले के बाद की ढीली कार्रवाई, ये सब मिलकर एक दुखद तस्वीर पेश करते हैं। लेकिन सरकार इन सवालों का जवाब देने की बजाय *जाति जनगणना* जैसे मुद्दों को हवा दे रही है। यह ऐसा है जैसे कोई डॉक्टर मरीज की बीमारी का इलाज करने की बजाय उसकी कुंडली देखने बैठ जाए!
ग्लोबल टेररिज्म इंडेक्स 2025 के अनुसार, भारत 14वें स्थान पर है, जो दिखाता है कि आतंकवाद का खतरा कम नहीं हुआ। जम्मू-कश्मीर में 2014-2020 के बीच 2,546 हमले हुए, जिनमें 481 सुरक्षाकर्मी और 215 नागरिक मरे। गृह मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 2014-2018 में 9,125 हमले हुए, जिनमें से अधिकांश छोटे थे, लेकिन बड़े हमलों की रोकथाम में कमी साफ दिखती है।
जनता क्या चाहती है?
जनता जाति गिनने से ज्यादा यह चाहती है कि उसे सुरक्षा मिले, आतंकवाद पर लगाम लगे, और सरकार जवाबदेही दिखाए। लेकिन सियासत का खेल ऐसा है कि जनता के असल मुद्दों को दबाकर भावनात्मक और विभाजनकारी मुद्दों को हवा दी जाती है। जाति जनगणना अपने आप में गलत नहीं, लेकिन इसका समय और मकसद संदिग्ध जरूर है।
तीर भटकाने का या निशाना साधने का?
जाति जनगणना का तीर छोड़कर सरकार ने शायद यह सोचा होगा कि पहलगाम हमले की आलोचना को दबा दिया जाएगा। लेकिन, जनता अब इतनी नासमझ नहीं। वह समझ चुकी है कि सियासत के ये तीर असल मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए छोड़े जाते हैं। जरूरत है कि सरकार आतंकवाद, सुरक्षा, और इंटेलिजेंस की नाकामी पर ध्यान दे, न कि जनता को जाति के नाम पर बांटने की कोशिश करे।
जाति गिनने से पहले, सरकार यह गिन ले कि आतंकवाद के खिलाफ उसने अब तक कितने ठोस कदम उठाए हैं। शायद तब जनता को भी लगे कि तीर सही निशाने पर मारा गया है, न कि हवा में!