डिजिटल न्यूज डेस्क, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी (Socialist) और धर्मनिरपेक्ष (Secular) जोड़ने से संबंधित संशोधन को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज कर दिया। चीफ जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की पीठ संविधान के 1976 संशोधन को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई कर रही थी। इन याचिकाओं में संविधान की प्रस्तावना से सोशलिस्ट, सेकुलर और अखंडता जैसे शब्द को शामिल किए जाने को चुनौती दी थी।
यह याचिका बीजेपी के पूर्व राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी, अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय, अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन और अन्य ने दायर की थी। पीठ ने याचिकाओं पर फैसला 22 नवंबर को सुरक्षित रखा था। इस संशोधन के जरिए संविधान में कई सारे बदलाव किए गए थे, इसलिए इसे ‘मिनी कॉन्स्टीट्यूशन’ भी कहा जाता है।
सीजेआई खन्ना ने 22 नवंबर को सुनवाई के दौरान कहा था, “भारतीय अर्थ में समाजवादी होना केवल कल्याणकारी राज्य के रूप में समझा जाता है। भारत में समाजवाद को समझने का तरीका अन्य देशों से बहुत अलग है। हमारे संदर्भ में, समाजवाद का मुख्य रूप से अर्थ कल्याणकारी राज्य है… बस इतना ही। इसने कभी भी निजी क्षेत्र को नहीं रोका है, जो अच्छी तरह से फल-फूल रहा है। हम सभी को इससे लाभ हुआ है। समाजवाद शब्द का प्रयोग एक अलग संदर्भ में किया जाता है, जिसका अर्थ है कि राज्य एक कल्याणकारी राज्य है और उसे लोगों के कल्याण के लिए खड़ा होना चाहिए और अवसरों की समानता प्रदान करनी चाहिए।”
सीजेआई ने यह भी कहा कि इतने साल हो गए हैं, अब इस मुद्दे को क्यों उठाया जा रहा है। इन याचिकाओं पर विस्तृत सुनवाई की जरूरत नहीं है। पीठ ने कहा कि 1976 में संविधान में संशोधन कर सोशलिस्ट और सेकुलर इन दो शब्दों को शामिल किया गया था। अगर इन याचिकाओं को स्वीकार किया गया तो ऐसे में यह सभी संशोधनों पर लागू होगा। सीजेआई ने यह भी बताया कि एसआर बोम्मई मामले में "धर्मनिरपेक्षता" को संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा माना गया है।
1976 का हुआ था 42वां संशोधन
जून 1975 से मार्च 1977 के बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संविधान में कई बार संशोधन किए, लेकिन सबसे बड़ा संशोधन दिसंबर 1976 में किया गया। इंदिरा सरकार ने 42वें संशोधन के जरिए संविधान की प्रस्तावना में तीन शब्द- ‘समाजवादी’, ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘अखंडता’ को जोड़ा था। ये पहली और आखिरी बार था, जब संविधान की प्रस्ताव में बदलाव हुआ था। इन शब्दों को जोड़ने के पीछे तर्क दिया गया था कि देश को धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक तौर पर विकसित करने के लिए ये जरूरी है।
अब इन्हें हटाने की मांग क्यों?
बता दें कि 1977 में केंद्र में जनता पार्टी की सरकार आने के बाद 44वें संविधान संशोधन के जरिए 42वें संशोधन के कई प्रावधानों को रद्द कर दिया गया था। हालांकि, संविधान की प्रस्तावना में हुए बदलाव से कोई छेड़छाड़ नहीं की गई थी। बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने अपनी याचिका में संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द जोड़ने की वैधता को चुनौती दी है। इसमें तर्क दिया गया है कि इस तरह का संशोधन संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संसद की शक्ति से परे है। यानी, संसद इस तरह का संविधान में संशोधन नहीं कर सकती।