भारतीय राजनीति में जब भी राष्ट्रवाद का नगाड़ा बजता है, अक्सर उसके पीछे कोई न कोई चूक, चुप्पी या चतुराई से छिपाई गई विफलता होती है। कारगिल से लेकर हालिया पहलगांव तक की घटनाएं इसका जीवंत उदाहरण हैं।
दोनों ही मौकों पर सत्ता में रही भारतीय जनता पार्टी ने ‘युद्ध’ को ‘विजय’ के रूप में प्रस्तुत कर जनता से राजनीतिक लाभ बटोरने की कोशिश की, लेकिन इन घटनाओं के मूल में जो प्रशासनिक लापरवाही छुपी रही, उस पर कोई गंभीर आत्मचिंतन नहीं हुआ।
कारगिल युद्ध को ‘विजय दिवस’ में बदलकर जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने खुद को शौर्य का प्रतीक बताने की कोशिश की, तब कोई यह सवाल न पूछ सका कि आखिर दुश्मन इतनी गहराई तक घुसा कैसे? पहाड़ियों पर बंकर बन गए, गोला-बारूद जम गया और हमारी चौकसी कहां थी? सैंकड़ों जवानों के बलिदान से उस चूक की पर्दादारी की गई, जिसके लिए राजनीतिक नेतृत्व को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए था।
अब आइए हालिया पहलगांव की तरफ, जहां मोदी सरकार की चाकचौबंद सुरक्षा व्यवस्था के दावे ध्वस्त हो गए। आतंकवादी भारी सुरक्षा घेरे को चीरते हुए उस इलाके में पहुंच जाते हैं जहां सैलानियों की भीड़ होती है। यह न केवल सुरक्षा एजेंसियों की विफलता है, बल्कि उस आत्ममुग्ध राजनीतिक सोच का परिणाम है जो केवल चुनावी लाभ के लिए खतरे की अनदेखी करती है।
‘ट्रेड और टॉक एक साथ नहीं चल सकते’, ‘खून और पानी साथ नहीं बह सकते’ ये केवल भाषणबाज़ी के जुमले हैं। असल सवाल तो यह है कि क्या ‘सरकार’ और ‘बेकार’ एक साथ चल सकते हैं? क्या केवल बहुमत पा लेना ही सुशासन का प्रमाण है? अटल जी की ‘विवेकशील चुप्पी’ हो या मोदी जी की ‘उत्साही आक्रामकता’, दोनों ही मौकों पर देश को असली जवाब नहीं मिले।
तीन दिन की सैन्य प्रतिक्रिया के बाद न तो पाकिस्तान दबा, न अंतरराष्ट्रीय बिरादरी हमारी ओर बढ़ी। नतीजा – शून्य। हमारे ‘ग्लोबल लीडर’ की विदेश यात्राएं, गर्मजोशी से गले पड़ना, सब निरर्थक सिद्ध हुए। ट्रंप भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू में तौलता है। चीन का समर्थन पाकिस्तान को मिल ही रहा है, और रूस अब चीन के ख़िलाफ़ खड़ा नहीं हो सकता।
यह वक्त है आत्मप्रशंसा से बाहर निकलकर आत्मविश्लेषण का। देश केवल युद्ध से नहीं, ईमानदार नीति, पारदर्शी जवाबदेही और प्रभावी कूटनीति से मजबूत बनता है। वरना इतिहास बार-बार साबित करता रहेगा कि ‘विजय’ की ढोल के पीछे अक्सर ‘विफलता’ की चुप्पी होती है।