महाराष्ट्र ने जितना कर्ज़ लिया, उससे कहीं ज़्यादा रकम ‘ऑल-इन कॉस्ट’ में चुकाया
✍🏻 प्रहरी संवाददाता, मुंबई। ‘मजबूत अर्थव्यवस्था और विकास का मॉडल’ बताने वाली बीजेपी सरकार पर सवाल खड़े हो रहे हैं, क्योंकि जिस महाराष्ट्र को आत्मनिर्भर बनाने की बातें की गईं, वही राज्य अब वर्ल्ड बैंक के कर्ज़ के जाल में बुरी तरह फंसा हुआ है। केवल साल 2024–25 में ही राज्य सरकार ने 900 करोड़ रुपये वर्ल्ड बैंक को चुकाने में गंवा दिए और वो भी सिर्फ़ ब्याज और छिपी हुई फीस में।
शुरुआत में तस्वीर बहुत अलग थी। सन् 2000 के आसपास जब महाराष्ट्र ने वर्ल्ड बैंक से हाथ मिलाया, तो दावा किया गया था कि यह ‘सस्ती ब्याज दर’ और ‘लंबी अवधि’ के कर्ज़ होंगे। ग्रामीण जल योजना से लेकर मुंबई की शहरी परिवहन परियोजनाओं तक, कृषि प्रतिस्पर्धा से लेकर स्वास्थ्य सुधार तक, हर प्रोजेक्ट को ‘ अंतरराष्ट्रीय सहयोग’ की चकाचौंध में लपेटकर जनता के सामने पेश किया गया।
लेकिन दो दशक बाद जो हकीकत सामने आई है, वह चौकाने वाली है। सूचना के अधिकार (RTI) के तहत वित्त मंत्रालय से मिले आंकड़े बताते हैं कि महाराष्ट्र ने जितना कर्ज़ लिया, उससे कहीं ज़्यादा रकम ‘ऑल-इन कॉस्ट’ (मूलधन + ब्याज + फीस) के रूप में चुका दी। कई मामलों में तो कुल अदायगी मूल स्वीकृत ऋण से भी कहीं आगे निकल गई।
वर्ल्ड बैंक कनेक्शन
महाराष्ट्र ने वर्ल्ड बैंक से जिन परियोजनाओं के लिए कर्ज़ लिया, उनमें शामिल हैं—
- जल व स्वच्छता: जलस्वराज्य परियोजना (2003), ग्रामीण जल आपूर्ति एवं स्वच्छता कार्यक्रम (2014)
- शहरी परिवहन: मुंबई अर्बन ट्रांसपोर्ट प्रोजेक्ट – MUTP 2A (2010)
- कृषि एवं ग्रामीण परिवर्तन: एग्रीकल्चरल कॉम्पिटिटिवनेस प्रोजेक्ट (2010),
- क्लाइमेट रेज़िलिएंट एग्रीकल्चर (2018),
- एग्री-बिजनेस ट्रांसफॉर्मेशन (2019)
- आपदा प्रबंधन व स्वास्थ्य: महाराष्ट्र भूकंप आपात कार्यक्रम (1994)
- हेल्थ सिस्टम्स डेवलपमेंट (1999)
हर बार यही वादा किया गया कि ‘विदेशी तकनीक’ और ‘सस्ती दर’ विकास को तेज़ करेगी। मगर असली खेल रहा विदेशी मुद्रा जोखिम, ब्याज मार्जिन, और कमिटमेंट चार्जेस का, जिनके चलते महाराष्ट्र सरकार हर साल अरबों रुपये बहा रही है।
क्या सचमुच सस्ते हैं ये कर्ज़?
सबसे बड़ा सवाल यही है: जब भारतीय बैंकों, नाबार्ड या बॉन्ड मार्केट से भी कम दरों पर कर्ज़ मिल सकता है, तो आखिर राज्य सरकार ने वर्ल्ड बैंक के महंगे मॉडल को क्यों चुना?
राज्य का खजाना लगातार खाली हो रहा है, मगर सत्ता के गलियारों में इसका ज़िक्र तक नहीं। विकास योजनाओं की चमकदार रिपोर्टें जारी होती हैं, नेताओं की तस्वीरों वाले विज्ञापन छपते हैं, लेकिन आम करदाता पर पड़ रहे 900 करोड़ रुपये के वार्षिक बोझ को जानबूझकर दबा दिया जाता है।
बीजेपी सरकार ने इसे ‘सस्ती मदद’ का नाम दिया, जबकि हकीकत यह है कि महाराष्ट्र विदेशी ऋणजाल में उलझकर हर साल खून-पसीने की कमाई गंवा रहा है। कर्ज़ की किस्तें भरने में ही आधी ताक़त खर्च हो रही है, और जनता को बदले में मिल रहा है सिर्फ़ काग़ज़ी विकास का भरोसा।