उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातिगत जनगणना एक बार फिर चर्चा के केंद्र में आ गई है। समाजवादी पार्टी (SP) प्रमुख अखिलेश यादव लगातार इसकी मांग कर रहे थे, और अब बहुजन समाज पार्टी (BSP) सुप्रीमो मायावती ने भी इस मांग का समर्थन कर दिया है। मायावती का यह कदम न केवल यूपी की राजनीति में नए समीकरण बना सकता है, बल्कि यह सवाल भी खड़ा करता है कि क्या जातिगत जनगणना केवल एक राजनीतिक मुद्दा है, या यह सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है?
जातिगत जनगणना की मांग कोई नई नहीं है। पिछड़े और वंचित वर्गों के नेता वर्षों से इस पर जोर देते रहे हैं। उनका तर्क है कि देश में वास्तविक सामाजिक-आर्थिक असमानता को तभी दूर किया जा सकता है, जब जातियों के आधार पर सटीक आंकड़े उपलब्ध हों। इस डेटा से आरक्षण नीति और सरकारी योजनाओं को अधिक प्रभावी बनाया जा सकता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह वास्तव में समाज को आगे ले जाने का उपाय है, या सिर्फ राजनीतिक दलों के लिए चुनावी एजेंडा?
भाजपा सरकार अब तक जातिगत जनगणना पर ठोस कदम उठाने से बचती रही है। हालांकि बिहार में इसकी शुरुआत हो चुकी है, लेकिन केंद्र सरकार इसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने को लेकर अनिश्चित नजर आती है। इसका कारण यह हो सकता है कि जातिगत जनगणना राजनीतिक समीकरणों को पूरी तरह से बदल सकती है और सत्ता समीकरण पर इसका गहरा असर पड़ सकता है।
मायावती के समर्थन के बाद अब यह मुद्दा और ज्यादा तूल पकड़ेगा। लेकिन असली सवाल यह है कि क्या यह केवल एक चुनावी हथियार बनकर रह जाएगा, या वास्तव में इससे बहुजन समाज को कोई ठोस लाभ मिलेगा? अगर इसे सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए उठाया गया, तो यह बहस का विषय बना रहेगा। लेकिन अगर सरकारें इसे गंभीरता से लें और इसके आधार पर नीति-निर्माण करें, तो यह सामाजिक न्याय की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम साबित हो सकता है।