अलास्का में ट्रंप और पुतिन की शिखर वार्ता को वैश्विक मीडिया ने “ऐतिहासिक” करार दिया है। कहा जा रहा है कि यूक्रेन को सुरक्षा गारंटी देकर युद्ध की आग बुझाई जाएगी। लेकिन असली सवाल यह है कि क्या यह वाकई शांति की कोशिश है, या फिर ताकतवर देशों के बीच संसाधनों की नई सौदेबाज़ी?
रूस और अमेरिका दोनों ही यूक्रेन में शांति नहीं, बल्कि अपने-अपने हित तलाश रहे हैं। रूस चाहता है कि उसका प्रभाव क्षेत्र सुरक्षित रहे, जबकि अमेरिका और यूरोप यूक्रेन को अपने सुरक्षा तंत्र में शामिल कर आर्थिक और सामरिक बढ़त हासिल करना चाहते हैं। असली खेल यूक्रेन की ज़मीन, उसके ऊर्जा भंडार और खनिज संपदाओं पर कब्जे का है। युद्ध चाहे चल रहा हो या शांति की बात हो, गरीब देश हमेशा शक्तिशाली राष्ट्रों के लिए “संसाधनों का गोदाम” ही रहते हैं।
यही रणनीति अफ्रीका और एशिया के कई देशों में भी दिखाई देती है। महाशक्तियाँ वहाँ लोकतंत्र और मानवाधिकार की दुहाई देती हैं, लेकिन असल मक़सद सोना, हीरा, कोबाल्ट, गैस और तेल पर नियंत्रण जमाना होता है। सहायता पैकेज और सुरक्षा गारंटी दरअसल आधुनिक उपनिवेशवाद के नए औज़ार बन चुके हैं।
अलास्का वार्ता भी उसी क्रम का हिस्सा है। अमेरिका और यूरोप यूक्रेन को “नाटो जैसी सुरक्षा” देने की बात कर रहे हैं, लेकिन सवाल उठता है कि यह सुरक्षा किसके लिए है—यूक्रेन की जनता के लिए, या पश्चिमी कंपनियों के निवेश और खनिज संपदाओं के लिए? रूस भी सुरक्षा गारंटी की मांग कर रहा है, पर उसका मक़सद है कि कोई उसकी पकड़ कमजोर न कर सके।
स्पष्ट है कि महाशक्तियों का यह खेल शांति नहीं, बल्कि शक्ति संतुलन और संसाधनों की होड़ है। यूक्रेन केवल एक बहाना है, असली दांव दुनिया के ऊर्जा और खनिज बाज़ार पर है। और दुर्भाग्य यह है कि गरीब और छोटे देश इस खेल में हमेशा मोहरा बनते हैं—कभी युद्ध की आग में झोंके जाते हैं, तो कभी शांति की आड़ में लूटे जाते हैं।