अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल की दोहरी मौजूदगी, कश्मीर में लहू और ‘रणनीतिक साझेदारी’ की चुप्पी
जब ‘रणनीति’ काग़ज़ पर चमकती है और ज़मीन पर खून बहता है, तब सवाल पूछना राष्ट्रविरोध नहीं, राष्ट्रधर्म है।
✍🏻 नई दिल्ली/श्रीनगर/इस्लामाबाद | विशेष संवाददाता। भारत और अमेरिका के बीच रणनीतिक संबंधों के जश्न में डूबी राजधानी दिल्ली 21 अप्रैल को अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस का स्वागत कर रही थी। उनके साथ उनकी पत्नी उषा वेंस, बच्चे और अमेरिकी प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारी भी शामिल थे। यह वेंस की पहली भारत यात्रा थी। यात्रा के एजेंडे में रक्षा सहयोग, वैश्विक रणनीति और व्यापारिक भागीदारी प्रमुख बिंदु रहे।
लेकिन इसी हफ्ते एक और यात्रा सुर्खियों के बाहर चुपचाप दर्ज हो चुकी थी। 13 अप्रैल को अमेरिकी कांग्रेस के सांसद जैक बर्गमैन के नेतृत्व में उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल पाकिस्तान पहुँचा। दो वर्षों में यह पहला ऐसा अमेरिकी दौरा था जिसने इस्लामाबाद के लिए कूटनीतिक संकेत भेजे। प्रतिनिधिमंडल में थॉमस सुओज़ी, जोनाथन जैक्सन और वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारी शामिल थे। वे पाकिस्तानी योजना मंत्री अहसान इकबाल से मुलाकात कर ‘विकास सहयोग’ पर चर्चा कर रहे थे। बैठक की विषयवस्तु सार्वजनिक नहीं की गई।
आंतरिक मंत्री मोहसिन नकवी और सेना प्रमुख (सीओएएस) जनरल असीम मुनीर ने भी अमेरिकी कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडल से अलग-अलग मुलाकात की और क्षेत्रीय सुरक्षा, रक्षा सहयोग और आतंकवाद निरोध के प्रति देश की प्रतिबद्धता पर जोर दिया था।
ऐसे में इन दोनों यात्राओं के बीच 22 अप्रैल को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम क्षेत्र में एक बड़ा आतंकी हमला हुआ। बैसरन में हुए इस हमले में 26 लोग मारे गए—25 पर्यटक और एक स्थानीय युवक। हमला पहलगाम बाजार से छह किलोमीटर दूर हुआ, लेकिन बचाव कार्य की गति और सुरक्षा व्यवस्था पर गंभीर सवाल उठे हैं।
दिलचस्प यह भी है कि अक्टूबर 2022 में हरियाणा के सूरजकुंड में चिंतन शिविर के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सिविल डिफेंस, मॉक ड्रिल और आतंकी हमलों से निपटने के लिए राज्यों को तैयार रहने की बात कही थी। दो साल बाद भी न तो तैयारी दिखी, न सुरक्षा।
अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल की दोहरी उपस्थिति, एक तरफ पाकिस्तान में गुप्त वार्ताएं और दूसरी ओर दिल्ली में शिष्टाचार और बीच में पहलगाम की त्रासदी, इन तीनों घटनाओं की कड़ियाँ अब राष्ट्रीय बहस के केंद्र में हैं।
सरकारी बयान में हमले की निंदा और संवेदना जरूर जताई गई, लेकिन यह साफ नहीं हो सका कि 21वीं सदी की सबसे बड़ी लोकतंत्र और ‘वैश्विक शक्ति’ बनने के दावेदार देश में आखिर आतंकियों को यह छूट कैसे मिली? दूसरा सबसे बड़ा सवाल यह भी है कि इन घटनाओं का आपस में क्या तार जुड़ा है? क्या अमेरिका क्षेत्र में शांति का दूत बन रहा है, या तनाव को हवा देकर अपने हित साध रहा है?
भाजपा सरकार, जो अक्सर राष्ट्रवाद के बुलंद नारों के सहारे जनता का विश्वास जीतती है, अब उन सवालों से भागती नज़र आती है, जो वास्तव में ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ से जुड़े हैं। अमेरिका जैसे देशों के साथ संबंध ज़रूरी हैं, लेकिन क्या वह संबंध इस हद तक पहुँच गए हैं कि हम अब केवल उनके “डिप्लोमेटिक शटल” बनकर रह जाएं?