प्रहरी संवाददाता, मुंबई। देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण को रद्द कर दिया और कहा कि आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती। अदालत ने कहा कि यह समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है। सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत पर तय करने के 1992 के मंडल फैसले को वृहद पीठ के पास भेजने से इनकार कर दिया। महाराष्ट्र ने आरक्षण की ये लक्ष्मण रेखा लांघ दी थी। अदालत ने सरकारी नौकरियों और दाखिले में मराठा समुदाय को आरक्षण देने संबंधी महाराष्ट्र के कानून को खारिज करते हुए इसे असंवैधानिक करार दिया।
बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘हमें इंदिरा साहनी के फैसले पर दोबारा विचार करने का कारण नहीं मिला।’ जस्टिस अशोक भूषण की अध्यक्षता में जस्टिस एल. नागेश्वर राव, जस्टिस एस. अब्दुल नज़ीर, जस्टिस हेमंत गुप्ता और एस. जस्टिस रवींद्र भट की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने मामले पर फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक, मराठा समुदाय शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े नहीं हैं, इसलिए उन्हें आरक्षण नहीं दिया जा सकता।
संविधान पीठ ने मामले में सुनवाई 15 मार्च को शुरू की थी। बॉम्बे हाईकोर्ट ने जून 2019 में कानून को बरकरार रखते हुए कहा था कि 16 फीसदी आरक्षण उचित नहीं है और रोजगार में आरक्षण 12 फीसदी से अधिक नहीं होना चाहिए और नामांकन में यह 13 फीसदी से अधिक नहीं होना चाहिए। हाईकोर्ट ने राज्य में शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में मराठाओं के लिए आरक्षण के फैसले को बरकरार रखा था। केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि महाराष्ट्र के पास मराठा समुदाय को आरक्षण देने की विधायी क्षमता है और इसका निर्णय संवैधानिक है, क्योंकि 102वां संशोधन किसी राज्य को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों (एसईबीसी) की सूची घोषित करने की शक्ति से वंचित नहीं करता।