योगेन्द्र यादव, राष्ट्रीय संयोजक स्वराज इंडिया
✍🏻 लेख.
चुनाव आयोग की विशेष प्रेस कांफ्रेंस ने सिर्फ ज्ञानेश कुमार गुप्ता का कद छोटा नहीं किया. महज चुनाव आयोग की साख नहीं घटी. ऐसी घटना हर हिंदुस्तानी का माथा नीचा करती है. मैं दुनिया भर में भारत की चुनावी प्रणाली का गुणगान करता था. इंग्लैंड को भारत के चुनाव आयोग से प्रक्रियाएं सीखने को कहा था. और अमेरिका को नसीहत दी थी कि बिना पक्षपात के चुनाव संपन्न करना भारत की चुनावी व्यवस्था से सीखना चाहिए, पिछले कुछ वर्षों में उसी चुनाव आयोग की कारस्तानियों ने भारतीय चुनाव व्यवस्था की साख धूल में मिला दी है.
चुनाव आयोग द्वारा आयोजित प्रेस कांफ्रेंस का संदर्भ समझिए, उससे कोई दस दिन पहले संसद में नेता विपक्ष राहुल गांधी पहले महाराष्ट्र में वोटर लिस्ट के फर्जीवाड़े के आरोप लगाने के बाद कर्नाटक के एक विधानसभा क्षेत्र में वोटर लिस्ट धांधली के गंभीर प्रमाण देश के सामने रख चुके थे.
बिहार में वोटर लिस्ट के गहन पुनरीक्षण पर गहन प्रश्न उठ चुके थे. जनमत सर्वेक्षण दिखा रहे थे कि चुनाव आयोग की साख अपने ऐतिहासिक न्यूनतम से नीचे गिर चुकी है. बिहार के सभी विपक्षी दलों के मुख्य नेता रविवार को वोटबंदी के विरुद्ध ‘वोटर अधिकार यात्रा’ की शुरुआत करने वाले थे. चुनाव आयोग ने ठीक उसी दिन सरकारी अवकाश के बावजूद प्रेस वार्ता बुलाई. तभी अंदेशा हो गया था कि यह विपक्ष की हेडलाइन खाने का खेल है.
मगर कहीं उम्मीद बची थी कि आयोग चुनाव व्यवस्था की साख बचाने के लिए कोई बड़ी घोषणा कर सकता है. उम्मीद इस बात से भी बंधी कि प्रेस कॉन्फ्रेंस में सभी मीडियाकर्मियों को आने की छूट दी गई, सवालों को सेंसर नहीं किया गया. पर प्रेस कॉन्फ्रेंस में जो कहा गया और जो नहीं कहा गया, वह निर्वाचन आयोग के इतिहास में शर्मनाक अध्याय की तरह दर्ज किया जायेगा.
इस प्रेस वार्ता में मुख्य चुनाव आयुक्त का शुरुआती वक्तव्य किसी संवैधानिक संस्था के अध्यक्ष के बयान की बजाय एक राजनेता के भाषण की तर्ज पर था. यह कयास लगना स्वाभाविक था कि उनका भाषण कहीं और से लिखकर आया है. गनीमत समझिए कि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती राजीव कुमार की तरह तुकबंदी की कोशिश नहीं की, लेकिन सस्ते फिल्मी डायलॉग पर अपना हाथ जरूर आजमाया. यह मैच के अंपायर कम और खिलाड़ी ज्यादा दिखाई दिये.
बेशक पत्रकार सवाल पूछने के लिए स्वतंत्र थे, पर मुख्य चुनाव आयुक्त भी किसी सवाल का जवाब देने या न देने के लिए स्वतंत्र थे, किसी सवाल के जवाब में कुछ भी प्रासंगिक-अप्रासंगिक बोलने के लिए स्वतंत्र थे.
सवाल था कि राहुल गांधी से एफिडेविट मांगा, तो अनुराग ठाकुर से क्यों नहीं. जवाब था कि स्थानीय वोटर ही आपत्ति दर्ज कर सकता है. तो क्या अनुराग ठाकुर वायनाड के स्थानीय वोटर हैं? सवाल था कि अगर एफिडेविट देने से जवाब मिलता है, तो सपा ने जो एफिडेविट दिया था, उसका कोई जवाब क्यों नहीं मिला. जवाब था कि ऐसा कोई एफिडेविट नहीं दिया गया था. यह उत्तर सफेद झूठ निकला.
सवाल था कि वोटर लिस्ट डिफेक्टिव थी, तो क्या मोदी जी की सरकार वोट धांधली के आधार पर बनी है. उत्तर था कि निर्वाचक होने और मतदाता होने में फर्क है. जिनका मतदाता सूची में गलत नाम था, उन्होंने वोट नहीं दिया. इस अद्भुत निष्कर्ष का आधार नहीं बताया गया.
सवाल था कि एसआइआर से पहले पार्टियों से राय-मशविरा क्यों नहीं हुआ. इसका जवाब नहीं मिला. सवाल था कि चुनाव वाले साल में इंटेंसिव रिवीजन न करने की चुनाव आयोग की अपनी ही लिखित मर्यादा क्यों तोड़ी गई? जवाब में फूहड़ जुमला मिला रिवीजन चुनाव से पहले करवायें या बाद में?
सवाल था कि इतनी हड़बड़ी में बारिश, बाढ़ के बीच एसआइआर क्यों करवाया गया. जवाब था कि इसी महीने में 2003 में भी कराया गया था. बात गलत थी, क्योंकि 2003 में रिवीजन से कई महीने पहले तैयारी की गयी थी, और तब न फॉर्म था, न दस्तावेज इकट्ठा करने थे.
कई पत्रकारों ने सीधे तथ्य मांगे. कितने लोगों ने फॉर्म के साथ कोई दस्तावेज नहीं जमा करवाया? बीएलओ ने कितने फॉर्म को ‘नॉट रिकमेंडेड’ श्रेणी में डाला? किस आधार पर ? बिहार में एसआइआर के दौरान जून-जुलाई के बीच कितने नाम जोड़े गये? एसआइआर के जरिये पुरानी वोटर लिस्ट में कितने विदेशी घुसपैठिये निकले ? जवाब में मिला सिर्फ सन्नाटा.
बीच-बीच में सन्नाटे को तोड़ती थी लफ्फाजी. ‘सात करोड़ मतदाता चुनाव आयोग के साथ खड़े हैं’ जैसा बेमानी डायलॉग. शाम को देर तक वोटिंग के प्रमाण के रूप में मांगी गयी सीसीटीवी वीडियो को माताओं-बहनों की इज्जत से जोड़ने की फूहड़ कोशिश. मशीन रीडेबल डाटा की मांग को खतरनाक बताने का हास्यास्पद प्रयास. और देश के सामने इतना बड़ा झूठ बोलने की हिमाकत कि बिहार के हर गांव-मोहल्ले में बीएलओ ने स्थानीय पार्टी कार्यकर्ताओं की मीटिंग बुला कर उन्हें यह सूची दी कि कौन मृतक हैं, कौन बाहर चले गये हैं.
ज्यादा खतरनाक यह अहसास कराया जाना था कि मतदाता बनना नागरिक का कर्तव्य है, आयोग का नहीं. अगर वोटर लिस्ट में कोई गड़बड़ है, तो पार्टियों का दोष है, चुनाव आयोग का नहीं. जिसको जो करना है, करके देख ले. अब आप खुद समझ लीजिए, आयोग किसके साथ खड़ा है.