करोड़ों खातों के बावजूद निष्क्रियता बनी सबसे बड़ी चुनौती
जीरो बैलेंस पर खुला, लेकिन बैंकों ने करोड़ों कमा लिए!
✍🏻 प्रहरी संवाददाता, नई दिल्ली। “खाते में पैसा आएगा, जीरो बैलेंस में भी सुविधाएं मिलेंगी” – वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री जनधन योजना (PMJDY) शुरू करते समय सरकार के ये वादे गूंज रहे थे। बैंकों ने रिकॉर्ड तोड़ मेहनत कर 55 करोड़ से अधिक जनधन खाते खोल डाले, लेकिन 2025 आते-आते इन खातों में जमा पैसों से ज्यादा धूल जमा हो गई।
आज, हालात यह हैं कि हर पांच में से एक खाता निष्क्रिय हो चुका है, यानी इनमें न कोई पैसा जमा कर रहा, न निकाल रहा। सवाल उठता है – क्या ये खाते बैंकिंग क्रांति के प्रतीक हैं या फिर सरकारी घोषणाओं का एक और दीर्घकालिक स्मारक? प्रधानमंत्री जनधन योजना (PMJDY) के तहत पिछले 11 वर्षों में 55.05 करोड़ से अधिक बैंक खाते खोले गए, लेकिन योजना का मूल उद्देश्य – वित्तीय समावेशन – अब भी कई चुनौतियों से जूझ रहा है।
कागजों में सफलता, हकीकत में सन्नाटा
जनवरी 2025 तक 54.57 करोड़ जनधन खाते खोले जा चुके थे, जिनमें से 56% खाताधारक महिलाएं थीं। ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में इस योजना का विशेष प्रभाव रहा, जहां अब तक 36.63 करोड़ खाते खोले जा चुके हैं। बैंकों ने यह आंकड़ा पेश कर सरकार की पीठ थपथपा दी, लेकिन असली कहानी इन आंकड़ों के पीछे छिपी है।
55 करोड़ खातों का आंकड़ा सरकार के लिए एक बड़ी उपलब्धि है, लेकिन निष्क्रिय खातों की बढ़ती संख्या इस योजना की स्थिरता पर सवाल खड़े कर रही है। सरकारी डेटा कहता है कि दिसंबर 2024 तक 11 लाख खाते निष्क्रिय घोषित किए जा चुके थे। बैंकों के लिए यह अब सिरदर्द बन गया है, क्योंकि भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के नियमों के अनुसार, यदि दो साल तक कोई लेन-देन नहीं होता, तो खाता निष्क्रिय मान लिया जाता है।
अब समस्या यह है कि इन खातों को खोला तो गया, लेकिन चलाया नहीं गया। क्या ये खाते सिर्फ इसीलिए खोले गए थे कि बैंकिंग सिस्टम का विस्तार दिखाया जा सके?
जनधन का हाल – “खाता खुला है, मगर तिजोरी खाली है”
बैंकों की मानें तो ग्रामीण और अर्ध-शहरी इलाकों में खोले गए अधिकांश खातों का हाल कुछ इस तरह है:
नाम लिखा है, पैसा नहीं है: लाखों खाते सिर्फ बैंकिंग रिकॉर्ड में जिंदा हैं, लेकिन इनका कोई उपयोग नहीं हो रहा।
फ्री में खाता, लेकिन फ्री में पैसा नहीं: कई खाताधारकों को लगा था कि सरकार हर खाते में मुफ्त पैसे डालेगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। नतीजा? खाता खोलकर छोड़ दिया।
सब्सिडी आई और उड़ गई: कुछ खातों में सरकार ने सब्सिडी डाली, लेकिन जैसे ही पैसा आया, निकाल लिया गया और खाता फिर से निष्क्रिय हो गया।
बैंकिंग का डर: कई ग्रामीण अभी भी बैंकिंग प्रक्रिया से अनजान हैं और बैंकों में जाने से हिचकते हैं।
बैंकों की समस्या – “खाते तो खोले, अब इन्हें चलाएं कैसे?”
अब बैंकों के सामने सवाल यह है कि इन निष्क्रिय खातों का क्या किया जाए?
बैंक कर्मचारी परेशान हैं कि इन खातों में ट्रांजैक्शन लाने के लिए खाताधारकों को कैसे मनाएं।
सरकार चाहती है कि खाताधारक डिजिटल बैंकिंग अपनाएँ, लेकिन अधिकांश लोग अभी भी नकद लेन-देन को प्राथमिकता देते हैं।
कई बैंक मित्र (Bank Mitra) लोगों के घर-घर जाकर समझा रहे हैं, लेकिन “बैंक में पैसे रखकर फायदा क्या?” जैसे सवालों के आगे सब बेकार हो रहा है।
क्या ये खाते सिर्फ आंकड़े बढ़ाने के लिए थे?
सरकार और बैंकों ने मिलकर एक ऐसी बैंकिंग क्रांति की कल्पना की थी, जिसमें हर नागरिक बैंकिंग व्यवस्था से जुड़े। लेकिन हकीकत यह है कि खाते खोलना आसान था, मगर उनमें वित्तीय आदतें विकसित करना कठिन है।
अब सवाल यह है – क्या सरकार और बैंक मिलकर इन खातों को सच में जीवंत बना पाएंगे या फिर ये योजना भी उन तमाम सरकारी योजनाओं की तरह सिर्फ रिपोर्टों और भाषणों तक ही सीमित रह जाएगी?
बैंकों को अब यह तय करना होगा कि वे इन खातों को सक्रिय करने के लिए नई रणनीति अपनाएं या फिर इन्हें इतिहास की किताबों का हिस्सा बनने दें।
जनधन खाते: जनता के लिए जीरो बैलेंस, बैंकों के लिए फुल कमाई!
हालांकि इसमें एक रोचक तथ्य भी है। जनता के लिए तो यह "जीरो बैलेंस खाता" था, लेकिन बैंकों के लिए "बेशकीमती खजाना" बन गया जनधन! साल 2017 से 2021 के बीच भारतीय स्टेट बैंक यानी SBI ने गरीबों के खातों से 346 करोड़ रुपए का शुल्क वसूल लिया, जिसमें यूपीआई और रुपे कार्ड ट्रांजैक्शन पर 254 करोड़ रुपए की कटौती शामिल थी। मुफ्त सेवाओं की बात करने वाली सरकार ये बताने में नाकाम रही कि जनधन में पैसा कम पड़े तो बैंक कमा लेंगे! जब बवाल मचा तो कुछ पैसा लौटाने की बात हुई, लेकिन अब भी 164 करोड़ करोड़ रुपए लौटाने बाकी हैं। गरीबों को राहत मिली या नहीं, पर बैंकों की जेब भर गई – "सबका साथ, बैंकों का विकास!"
